गर्मी झुलसी
बरखा भीगी
जाड़े-भर वह थरथर काँपी।
भिनसारे से सई साँझ तक वह खटती है
‘होइहि सो जो राम रचि राखा’ वह रटती है
पाँव-पियादे
सड़क-दर-सड़क
उसने पूरी नगरी नापी।
रात हुए वह किसी घाट पर सो जाती है
बुझे आरती के दीये की वह बाती है
हाट-लाट के
देख तमाशे
उसने अपनी सूरत ढाँपी।
राजा के कारिंदे आते वह डरती है
उसकी देही राख हुई बंजर धरती है
बिना मरे ही
बरसों-बरसों
अगिन चिता की उसने तापी।