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कविता

उसकी देही बंजर धरती

कुमार रवींद्र


गर्मी झुलसी
बरखा भीगी
जाड़े-भर वह थरथर काँपी।

भिनसारे से सई साँझ तक वह खटती है
‘होइहि सो जो राम रचि राखा’ वह रटती है

पाँव-पियादे
सड़क-दर-सड़क
उसने पूरी नगरी नापी।

रात हुए वह किसी घाट पर सो जाती है
बुझे आरती के दीये की वह बाती है

हाट-लाट के
देख तमाशे
उसने अपनी सूरत ढाँपी।

राजा के कारिंदे आते वह डरती है
उसकी देही राख हुई बंजर धरती है

बिना मरे ही
बरसों-बरसों
अगिन चिता की उसने तापी।
 


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